एक बार श्री ठाकुर जी ऐवं श्री राधिका जी विराजमान थे। श्री राधिका जी ने श्री ठाकुरजी से विनती करी:- "कृपानाथ मैं रोज मान करती हुँ और आप मुझे मनाते हो,आज हम विपरीत लीला रचते है,आप मान करो और मैं आपको मनाऊँगी।"
ठाकुर जी ने विनम्रता पूर्वका कहा-"प्रिये आप मान करो यह तो योग्य है कारण कि आप स्त्री हो मान करना स्त्री का स्वभाव है,औऱ मान छुडाना पुरुष का स्वभाव है,पुरुष मान नहीं करते है और अगर करें तो स्त्री सरलता से छुडा नहीं सकती है इसलिये इस विपरीत लीला का हठ मत करिये।"
परंतु राधिका जी नहीं मानी,और अपनी हठ पर अडी रही,तब श्री ठाकुर जी वहाँ से मान करके दुसरी निकुंज में जा बिराजे । श्री राधा जी ने बहुत प्रयत्न किये,परंतु ठाकुर जी का मान नहीं छुटा तब तो राधा जी बहुत चिन्तातुर हुई,और अपनी बात पर पश्चाताप करने लगी तभी श्री यमुना जी वहाँ पधारी।
श्री राधाजी ने यमुना जी से कोई उपाय करने की विनती करी,तब श्री यमुना जी ने कहा:-"मुझे श्री ठाकुर जी का श्रृंगार धराओ यह विपरीत रुप देखकर आप श्री जरुर मान छोड़ देंगे।"
तब राधिका जी ने अपने श्री हस्तों से श्री यमुना जी को मुकुट-काछनी का श्रृंगार धराया।तब श्री यमुनाजी श्री ठाकुर जी के पास पधारी। इस स्वरूप में यमुना जी को देखकर श्री ठाकुर जी प्रसन्नति से हँस गये और मान छूट गया। श्री राधिका जी और श्री ठाकुर जी ने श्री यमुना जी से यह श्रृंगार सदा धारण करने की आज्ञा करी। इसलिए श्री ठाकुर जी की प्रसन्नता के लिए श्री यमुनाजी यह श्रृंगार धारण करती है।
श्री यमुना जी को यह श्रृंगार करवा कर श्री ठाकुर जी ने उनमें अपना प्रभुत्व प्रकट कियाऔर स्वयं अगीकार करा। श्री यमुना जी श्री ठाकुर जी की पत्नि और प्रिया दोनों हैं । इसलिए श्री ठाकुर जी यमुना जी पर विशेष प्रसंन रहते है।
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