Saturday, September 3, 2016

यादें गाँव की

हम देहात के निकले बच्चे थे. पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी कक्षा के तनाव में स्लेटी खाकर हमनें तनाव मिटाया था.

स्कूल में टाट पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी ले जाते थे. कक्षा छः में पहली दफा हमने अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था. करसीव राइटिंग तो आजतक न सीख पाए.

हम देहात के बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी, कपड़े के बस्ते में किताब और कापियां लगाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था. तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी. हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था.

ब्लू शर्ट और खाकी पेंट में जब हम इंटरमीडिएट कालेज पहुंचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास हुआ. गाँव से आठ दस किलोमीटर दूर के कस्बे में साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी. हर तीसरे दिन हैंडपम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरतें मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे.

स्कूल में पिटते मुर्गा बनते मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता हम देहात के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि ईगो होता क्या है क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता और हम अपनी पूरी खिलदण्डिता से हंसते पाए जाते.

रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फासला लेना होता मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते.

हम देहात के निकले बच्चें सपनें देखने का सलीका नही सीख पाते अपने माँ बाप को ये कभी नही बता पाते कि हम उन्हें कितना प्यार करते है.

हम देहात से निकले बच्चें गिरते सम्भलते लड़ते भिड़ते दुनिया का हिस्सा बनतें है कुछ मंजिल पा जाते है कुछ यूं ही खो जाते है. एकलव्य होना हमारी नियति है शायद. देहात से निकले बच्चों की दुनिया उतनी रंगीन होती वो ब्लैक एंड व्हाइट में रंग भरने की कोशिश जरूर करते हैं.

पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिले में लाख शहर में रहें लेकिन हम देहात के बच्चों के अपने देहाती संकोच जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करते है नही छोड़ पाते है सुड़क सुड़क की ध्वनि के साथ चाय पीना अनजान जगह जाकर रास्ता कई कई दफा पूछना.कपड़ो को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नही आता है.

अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास.
हम देहात से निकलें बच्चें थोड़े अलग नही पूरे अलग होते है अपनी आसपास की दुनिया में जीते हुए भी खुद को हमेशा पाते है थोड़ा प्रासंगिक थोड़ा अप्रासंगिक.
– डॉ. अजित

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